हाँ मैं हूँ
बाज़ारू
पता है पहली बार कब बनी
जब अकेले घर से निकली थी
कॉलेज के लिए।पढ़ना ही तो चाहती थी
ये कहाँ सोचा था कि
सड़क पर कोई मेरा पट्ट भींचेगा
पलट के इतनी ज़ोर से उसे मारा
नाख़ून टूट गया था मेरा
‘हरामज़ादी, कुतिया!’ बोल वो तो भाग गया
पर आस पास सब मुझे घूरते रहे।
हाँ मैं हूँ
बाज़ारू
एक बहुत बड़ा पाप किया मैंने
अपने पैरों पर खड़ा होने का
नौकरी देने वाले ने सोचा
ये अच्छा माल हाथ लग गया
जो ख़ुद को छूने न दिया
तो कामचोर, बदचलन का ठप्पा लगा दिया
काम से निकाल ख़ुद को खुदा समझा
हर चीज़ की क़ीमत है, ख़्वाहिशों की भी
पर क्या इतना सस्ता है आत्मसम्मान?
हाँ मैं हूँ
बाज़ारू
मोहब्बत हुयी और ऐसे जैसे इबादत हो
दुनिया जहाँ छोड़ दिया
दोस्त, रिश्तेदार, यहाँ तक कि घर
सबसे नाता तोड़ लिया
सब कुछ लुटाया, कुछ भी ना रखा
जिसके लिए सबको भुला दिया
वही एक दिन बोला-
रांड, जो अपने घर की न हुयी
वो मेरी क्या सगी होगी?
हाँ मैं हूँ
बाज़ारू
बाज़ार के बीचों बीच हूँ
सब पर नज़रें गड़ाए बैठी हूँ
कौन क्या है कैसा है
देख,परख चुकी हूँ
मैं तो हूँ ही बाज़ारू
पर इस बाज़ार में तुम्हें
तुम्हारी औक़ात भी दिखा दूँ
तुम बोली तो लगा सकते हो
पर ख़रीद नहीं सकते।